धर्म एवं दर्शन >> स्वर्णिम सूक्तियाँ स्वर्णिम सूक्तियाँस्वामी अवधेशानन्द गिरि
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जीवन के दिव्य अनुभवों का सार-संक्षेप ...
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
स्वर्णिम सूक्तियाँ
जीवन के विविध रसों का सार तत्व
अनुभवों के विस्तार को संजोकर रखा नहीं जा सकता। बुद्धि उसे सूत्र और
प्रतीक रूप में स्मृति पटल पर उकेरती है। यह कहा जाए कि यह प्रक्रिया बीज
से वृक्ष और फिर वृक्ष से बीज रूप में परिवर्तित होने की है, तो
अतिशयोक्ति नहीं होगी। आपने मधुमक्खियों को देखा होगा, जो बाग-बाग
घूम-घूमकर एक-एक फूल से मधु को इकट्ठा करती हैं। इसी प्रकार विद्वान एवं
स्वाध्याय प्रेमी अन्य के अनुभव-सार को मोतियों की तरह एकत्रित करते हैं
और उन्हें पिरोकर एक ऐसी बेशकीमती माला गूंथ लेते हैं, जिसकी आभा का
प्रकाश जिज्ञासु श्रोताओं-पाठकों को एक सुनिश्चित दिशा प्रदान करता है।
आत्मविकास की साधना में इन सूक्तियों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। कभी-कभी कोई एक सूक्ति जीवन की दशा और दिशा दोनों को बदल देती है। ये सूक्तियां अकसर उस डंडे जैसा काम करती हैं, जो आपके विचारों की गुल्ली पर पहली चोट करके उसे ऊपर उछालता है और फिर दूसरी चोट से उसे उन ऊंचाइयों को छूने को विवश कर देता है, जिस ओर उसकी सामान्य स्थिति में गति होनी संभव नहीं थी।
हमें पूर्ण विश्वास है कि ये सूक्तियां आपके जीवन को एक नई दिशा तो देंगी ही, आपके मन में अपने उन पूज्य ग्रंथों को पढ़ने की जिज्ञासा भी जाग्रत करेंगी, जिन्हें हमने प्राचीन कहकर अनुपयोगी मान लिया है।
आपकी जीवन साधना उत्तरोत्तर उन्नत हो, यही शुभकामना है।
आत्मविकास की साधना में इन सूक्तियों की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका है। कभी-कभी कोई एक सूक्ति जीवन की दशा और दिशा दोनों को बदल देती है। ये सूक्तियां अकसर उस डंडे जैसा काम करती हैं, जो आपके विचारों की गुल्ली पर पहली चोट करके उसे ऊपर उछालता है और फिर दूसरी चोट से उसे उन ऊंचाइयों को छूने को विवश कर देता है, जिस ओर उसकी सामान्य स्थिति में गति होनी संभव नहीं थी।
हमें पूर्ण विश्वास है कि ये सूक्तियां आपके जीवन को एक नई दिशा तो देंगी ही, आपके मन में अपने उन पूज्य ग्रंथों को पढ़ने की जिज्ञासा भी जाग्रत करेंगी, जिन्हें हमने प्राचीन कहकर अनुपयोगी मान लिया है।
आपकी जीवन साधना उत्तरोत्तर उन्नत हो, यही शुभकामना है।
-प्रकाशक
ॐ
समर्पित है यह पुस्तक उन मनीषियों के श्रीचरणों में जिन्होंने
‘सर्वे भवंतु सुखिनः’ के इस सद्संकल्प को पूरा करने
के लिए
अपने जीवन के भौतिक सुखों का परित्याग किया जिन्होंने आसुरी वृत्तियों को
समाप्त करने के लिए अपनी अस्थियों तक का दान कर दिया।
दो शब्द
संस्कृत साहित्य में सूक्तियों का बहुत बड़ा महत्व है। मानव-मन के
प्रत्येक पहलू पर आपको अनेक सूक्तियां प्राप्त हो सकती हैं। वस्तुतः
सूक्तियां उन शक्तिशाली एवं प्रभावशाली तीरों के समान हैं जो मानव के हृदय
पर सीधा प्रहार करती हैं। ये ‘गागर में सागर’ की तरह
हैं।
इनमें विचारों का असीम भंडार होता है। जो बात किसी व्यक्ति को साधारण भाषा
में समझाने पर उसकी समझ में नहीं आती, वही बात सूक्तियों द्वारा तत्काल
समझ में आ सकती है। यो ऐसी चेतावनी होती हैं जिन्हें कतई उपेक्षित नहीं
किया जा सकता।
सूक्तियों में एक व्यवहार कुशलता होती है। इनमें आदेश और निर्देश की भावना निहित होती है। इसीलिए वे मानव-हृदय के तारों को झनकारकर रख देती हैं। तब मनुष्य का मन क्रियाशील हो जाता है। उसके उदासीन, उत्साहित एवं दीन-हीन मन पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि कुंठा और संत्रास के सभी भाव तिरोहित हो जाते हैं। इन्हें सुनकर कंजूस दानवीर बन जाता है। पापी व्यक्ति पाप छोड़कर पुण्यात्मक हो जाता है। कायर मनुष्य शूरवीर बन जाता है। यही कारण है कि सूक्तियां सामाजिक सुधार में लगे हर वर्ग के लोगों के बहुत काम आती हैं।
इस पुस्तक में हम कुछ ऐसी ही सूक्तियां प्रस्तुत कर रहे हैं जिन्हें आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज ने समय-समय पर अपने प्रवचनों में उद्धृत किया है। ये सूक्तियां वेद, पुराण, वाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस, महाभारत, मनुस्मृति, बुद्ध चरित, कुलार्णव तंत्र, तुलसी सतसई, दोहावली, चाणक्य नीति तथा उत्कृष्ट ग्रंथों से ली गई हैं। हमें विश्वास है कि इन्हें पढ़कर आपका ज्ञानवर्धन अवश्य होगा।
सूक्तियों में एक व्यवहार कुशलता होती है। इनमें आदेश और निर्देश की भावना निहित होती है। इसीलिए वे मानव-हृदय के तारों को झनकारकर रख देती हैं। तब मनुष्य का मन क्रियाशील हो जाता है। उसके उदासीन, उत्साहित एवं दीन-हीन मन पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि कुंठा और संत्रास के सभी भाव तिरोहित हो जाते हैं। इन्हें सुनकर कंजूस दानवीर बन जाता है। पापी व्यक्ति पाप छोड़कर पुण्यात्मक हो जाता है। कायर मनुष्य शूरवीर बन जाता है। यही कारण है कि सूक्तियां सामाजिक सुधार में लगे हर वर्ग के लोगों के बहुत काम आती हैं।
इस पुस्तक में हम कुछ ऐसी ही सूक्तियां प्रस्तुत कर रहे हैं जिन्हें आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरि जी महाराज ने समय-समय पर अपने प्रवचनों में उद्धृत किया है। ये सूक्तियां वेद, पुराण, वाल्मीकि रामायण, रामचरित मानस, महाभारत, मनुस्मृति, बुद्ध चरित, कुलार्णव तंत्र, तुलसी सतसई, दोहावली, चाणक्य नीति तथा उत्कृष्ट ग्रंथों से ली गई हैं। हमें विश्वास है कि इन्हें पढ़कर आपका ज्ञानवर्धन अवश्य होगा।
-गंगा प्रसाद शर्मा
मधुमक्खियां बड़ी लंबी-लंबी यात्राएं करती हैं मधुसंचय करने के लिए। इतना
कठोर श्रम करते समय उनके मन में यह भावना नहीं होती कि मधु का उपयोग वे ही
करेंगी। कठोर श्रम और निष्काम भावना ही मधु में अमृत तुल्य मधुरता और
पावनता प्रदान करती है। ऐसे ही जिस व्यक्ति के जीवन में कठोर श्रम और
दूसरों के जीने के लिए जीने की भावना है वह लौकिक स्तर पर तो लोगों के
रोगों को समाप्त करता ही है, उन्हें पावन भी बना देता है अर्थात् धर्म,
अर्थ, काम और मोक्ष चारों पुरुषार्थ सिमट जाते हैं उसमें।
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वेदों की सूक्तियां
वेद अपौरुषेय हैं। ऋषियों ने ध्यान की उच्चावस्था में इनका साक्षात्कार
किया था। वेदों में जीवन के प्रत्येक क्षेत्र का व्याख्यान किया गया है।
व्यवहार वेदों का ही अनुसरण करते हैं। वेद प्रतिपादित कर्म ही धर्म है।
वेद भाषा सूत्र रूप में अनंत सत्ता की ओर संकेत करती है। प्रत्येक मनुष्य
को चारों वेदों—ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद एवं सामवेद का
स्वाध्याय, मनन और चिंतन करना चाहिए।
ऋग्वेद
तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति।
सूरयः दिवीव चक्षुराततम्।।
सूरयः दिवीव चक्षुराततम्।।
विद्वान लोग गगन में निबद्ध दृष्टि के समान विष्णु के उस परम पद को सदैव
देखते रहते हैं।
विद्वान् पथः पुरएत ऋजु नेषति।
विद्वान गण पुरोगामी होकर सरल पथ से मनुष्यों का नेतृत्व करें।
उत पश्यन्नश्नुवन् दीर्घमायु।
रस्तमिवेज्जरिमाणं जगम्याम्।।
रस्तमिवेज्जरिमाणं जगम्याम्।।
देखते हुए और दीर्घायु भोगते हुए हम वृद्धावस्था में वैसे ही प्रवेश करें,
जैसे अपने घर में।
यस्तित्याज सचिविदं सखायं न तस्य वाच्यपि भागोऽस्ति।
यदीं श्रृणोत्यलकं श्रृणोति न हि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम्।।
यदीं श्रृणोत्यलकं श्रृणोति न हि प्रवेद सुकृतस्य पन्थाम्।।
जो मनुष्य सदैव साथ रहने वाले मित्र की तरह वेद का त्याग कर देता है, उसकी
वाणी में सफलता नहीं होती। वह जो सुनता है, व्यर्थ सुनता है। वह पुण्य-पथ
को नहीं जानता।
इला सरस्वती मही तिस्त्रो देवीर्मयोभुवः।
मातृभूमि, मातृसंस्कृति और मातृभाषा—ये तीनों सुखद होती हैं।
अर्यो दिधिष्वो त्रिभुजाः अतृष्यन्सिः अपसः प्रयसा वर्धयन्तीः।
राष्ट्र की जनता धनी, पोषक, अतुष्यालु, कर्मठ और दानशील हो।
उत्तिष्ठित ! जाग्रत ! प्राप्यपरान निरोधक।
उठो, जागो ! सद्गुरुओं द्वारा ज्ञान प्राप्त करो।
गुरुपोदेश तोइयेयं न च शास्त्रर्थ कोटिभिः।
केवल शास्त्रों के आधार पर नहीं, इस विद्या को गुरु द्वारा सीखें।
यतेमहि स्वराज्ये।
हस स्वराज्य के लिए प्रयत्न करते रहें।
रयिं जागृवांसो अनुग्मन्।
जागरुक जन ऐश्वर्य पाते हैं।
अश्याम तं कामभग्ने तवोती।
हे तेजस्विन ! आपके संरक्षण में हम सभी प्रकार की समृद्धि प्राप्त करें।
सुवीर्यस्व पतयः स्याम।
हम उत्तम शक्ति के स्वामी बनें।
भूवो विश्वेभिः सुमना अनीकैः।
सभी सैनिकों के साथ सद्व्यवहार करें।
पुरुष एवेदं सर्व सद्भूतं यच्च भाव्यम्।
काल की सावधिकता के परे इसी तत्व की स्थिति है।
पादोऽस्य विश्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि।
सभी जीव-जड़ इसी के आधीन हैं तथा अमर तत्व भी यही है।
श्रद्धायाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः।
श्रद्धा से ब्रह्म तेज प्रज्वलित होता है और श्रद्धापूर्वक ही हवि अर्पण
किया जाता है।
प्रियं श्रद्धे ददतः प्रियं श्रद्धे दिदासतः।
हे श्रद्धा ! दान देने वाले का प्रिय कर, दान देने की इच्छा रखने वाले का
भी प्रिय कर अर्थात् उन्हें अभीष्ट फल प्रदान कर।
श्रद्धां हृदय्या याकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु।
सब लोग हृदय के दृढ़ संकल्प से श्रद्धा की उपासना करते हैं क्योंकि
श्रद्धा से ही ऐश्वर्य प्राप्त होता है।
श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यंदिनं परि।
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रु चि श्रद्धे श्रद्धापयेहनः।।
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रु चि श्रद्धे श्रद्धापयेहनः।।
हम प्रातःकाल, मध्याह्न काल और सूर्यास्त वेला में अर्थात् सायंकाल
श्रद्धा की उपासना करते हैं। हे श्रद्धा ! हमें इस विश्व अथवा कर्म में
श्रद्धावान कर।
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